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तो फ़िर से विषय पर लौटते हैं. आखिर निष्कर्ष क्या है?
निश्चित तौर पर किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना मेरे लिए अथवा किसी भी एक व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं, क्योकि हम सभी इस विशाल वृक्ष की एक पत्ती मात्र हैं.
लेकिन शायद, हम सभी इन बातों, अथवा इनमे से कुछेक बातों से सहमत हो सकते हैं -
१. रजत जयंती वर्ष को कार्यकर्ता वर्ष के रूप में मनाया जाए. मंच पर मालाएँ, कार्यकर्ताओं के गलों में भी दिखे.
२. कार्यक्रमों में संवाद दो-तरफा हो. जितना हम बोले, उससे ज्यादा (सबसे) सुने और उनकी भावनाओ को जाने. तालियाँ, कार्यकर्ताओं के विचारों पर भी पड़ें.
३. हम सिर्फ़ कार्यकर्ताओं को ही केन्द्र (राष्ट्र/प्रान्त) द्वारा आयोजित/ प्रायोजित कार्यक्रमों में न बुलाएँ, बल्कि शाखाओं के कार्यक्रमों में भी, (राष्ट्रीय/प्रांतीय) टीम के ज्यादा से ज्यादा लोग पहुंचे. मतलब केन्द्र द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों की बहुलता होने की जगह, हम शाखाओं को रजत जयंती पर विशिष्ट कार्यक्रम आयोजित करने हेतु प्रोत्साहित करें और उसमे सभी लोग भाग लें. इसमे भी ग्रामीण एवं महिला शाखाओ के कार्यक्रमों को वरीयता दे.
४. राष्ट्र अथवा प्रान्त द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में वरीयता अर्ध-सक्रिय अथवा निष्क्रिय शाखाओ को मिले. पदाधिकारी स्वयं पहल कर, इन शाखाओं में कार्यक्रम आयोजित करवाने का दृढ़ निश्चय करें.
५. कार्यक्रमों में, सदस्यों के अभिभावकों का यथोचित सम्मान हो
६. उल्लास पर्व को संगठन पर्व की तरह मनाएं. किसी भी मुख्य कार्यक्रम के ठीक पहले या बाद में उपस्थित सदस्यों के लिए कार्यशाला अथवा नेतृत्व से सीधे संवाद की व्यवस्था अवश्य हो.
जारी.....
- अनिल वर्मा
मोबाईल- 9334116711
1 comment:
भाई अनिल के विचार बहुत ही सुंदर हैं. एक परिपक्वता है इन विचारो में. ये एक क्रन्तिकारी परिवर्तन ला सकते हैं, बशर्ते की नेतृत्व अपना "हक़" छोड़ने को तैयार हो. आख़िर मालायें और माइक यूँ ही नही छुटते.
निष्क्रिय और अर्ध-सक्रिय शाखाओ में जाने का मतलब हैं "सम्मान" और माला से वंचित रहने का रिस्क!
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