हम रजत जयंती वर्ष की दहलीज पर खड़े हैं. शायद सभी लोग उत्सव सरीखे किसी माहौल में डूब जाना चाहते हैं. उत्सव मनाने के दो कारण होते है -
१. अपनी उपलब्धियों को सेलेब्रेट करने के लिए, अथवा
२. निराशाओं को भुला कर कुछ देर के लिए ही सही, हम ख़ुद को उल्लास में व्यस्त कर लेना चाहते हैं.
दूसरी बात समझ नहीं आ रही. लेकिन इतनी मुश्किल भी नहीं.
आज हम ५५० शाखाओं वाला संगठन होने पर गर्व महसूस करते हैं.
- लेकिन वस्तुतः इनमें कितनी शाखाएं सक्रिय हैं? ऐसा विचार मन में आते ही, उसे झटक कर फ़िर से सिर्फ़ अच्छी-अच्छी बातें सोचने लगते हैं. सही भी है, नेगेटिव सोचने से अच्छे कामों से ध्यान बंटता है. लेकिन मोर कितना भी नाचे, अपने पैरो को देख कर उदास हो जाता है. उसी तरह हमारा संगठन जिन पैरों पर टिका है - वो हमारी ये ५५० शाखाएँ ही हैं. अगर ये खोखली होती रही और हम इस बात को इग्नोर करते रहे तो तय मानिये की वही होगा जो कमजोर नींव वाली इमारतों का होता है.
- आज इस स्थिति तक पहुँचने के कई कारण है. सवाल है, कि आखिर इसका समाधान क्या है? सवाल बहुत बड़ा है और स्वयं में कई सवालों को समेटे है. उनकी विवेचना कर, किसी समाधान तक पहुंचना किसी एक अकेले के बस के बाहर की बात है. किंतु, हमारे लिए निश्चिंतता की एक बात ये भी है - कि संगठन को आज भी संस्थापक नेतृत्व से लेकर बाद की सभी पीढियों का समान रूप से मार्गदर्शन प्राप्त होता रहा है, और हमारा ये वृक्ष पुराना हुआ, इसकी शाखाओ का विस्तार हुआ. कई पतझड़ आए, गए, लेकिन आज भी सभी तूफानों का सामना डट कर, कर रहा है. लेकिन इसकी जड़ों (शाखाओं) को पानी (मार्गदर्शन) मिलता रहे, नई कोंपलों (नई पीढी और नेतृत्व) को सूर्य की रौशनी और वायु (अनुभवी नेतृत्व के अनुभवों और मार्गदर्शन का लाभ) मिलती रहे यह इस वट-वृक्ष के लिए अत्यावश्यक है. नई डालियों को फैलने का अवसर मिलें, पुरानी शाखाएं उनका स्वागत करें, उन्हें पनपने और घना होने का मौका दें, यह इस वृक्ष के विस्तार के लिए बहुत जरुरी है.
शीर्ष नेतृत्व पर आश्रित होता जा रहा संगठन - आज कोई भी कार्यक्रम हो, शाखाएँ सिर्फ़ राष्ट्रीय अध्यक्ष अथवा प्रांतीय अध्यक्ष का दौरा चाहती हैं या यूँ कहें की हम सभी ने दौरा करने के जिम्मेवारी भी शायद इन के ऊपर छोड़ दी है. ऐसे इक्के-दुक्का ही राष्ट्रीय या प्रांतीय पदाधिकारी हैं जो शाखाओं का सांगठनिक दौरा करते हैं. नतीजा सामने है - राष्ट्रीय और प्रांतीय कार्यकारिणीयों में पदाधिकारियों की पूरी फौज होते हुए भी शाखाएं इनके अनुभव और मार्गदर्शन का लाभ पाने से वंचित रह जाती हैं और दोष आता है - राष्ट्रीय/ प्रांतीय अध्यक्ष पर. अब एक अध्यक्ष किस-किस तक पहुँच सकता है?
पदाधिकारियों, उप-समिति संयोजकों को अपने अधिकार और कर्तव्य भी पता नहीं हैं.
ग़लत तो नहीं कहा मैंने, सिर्फ़ कुछेक पदाधिकारियों को छोड़ दें, तो अधिकांश पदाधिकारी, कार्यकारिणी की बैठकों में भाग लेकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं. अब इसमे भी दो बातें है - कुछ लोगों को जबरदस्ती पद दिए गए, इसलिए उनमे कुछ करने की चाहत ही नही. जिनको सहमति से पद दिए गए, उन्हें पता नहीं कि उन्हें करना क्या है? तो संगठन पूरी तरह से सर्वोच्च नेतृत्व की तरफ़ केंद्रित होता जा रहा है. सहसा इस बात पर विश्वास नहीं होता, लेकिन काफ़ी समय से, मैंने बड़ी शिद्दत से इसे महसूस किया है. और जिस तरह रांची अधिवेशन में विभिन्न सत्र संपादित हुए, आपने भी थोड़ा बहुत महसूस किया होगा. विशाल संगठन में विकेंद्रीकरण से ही गतिशीलता बरक़रार रह सकती है, शायद इस ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा.
जब रजत जयंती उत्सव की बात हो रही हो, तो इन बातों का क्या मतलब ?
जरुर है, और इसलिए भी है कि जब हम उत्सव मनाएं, उल्लास-पर्व मनाएं तो बनावटी मुस्कान नहीं रहे. उल्लास हमारे गालों और होंठों के माध्यम से स्फुटित हो.
आप के पास कई सुझाव हो सकते हैं. आप मेरी कई बातों से असहमत भी सकते है. लेकिन जो मूल प्रश्न है, उनसे तो आप भी इंकार नहीं कर सकते.
जारी.....
- अनिल वर्मा
मोबाईल- 9334116711
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2 comments:
यह बात सही है की मंच के दूसरी और तीसरी पंक्तियों के नेतृत्व का उपयोग नही के बराबर हो रहा है. इससे एक ओर तो शिएश नेतृत्व पर अतिरिक्त कार्य भार पड़ता है, वहीँ दूसरी पंक्ति को अनुभव का लाभ नही मिल पाता.
इस सिलसिले से जो सब से बुरा प्रभाव दिख रहा हूँ कि अनेक शाखा अध्यक्ष और मंत्री ऐसे मिल जाते हैं जिन्हें मंच दर्शन, मंच संस्कृति, मंच परम्परा आदि के बारे में पता ही नही होता. अस्चर्या नही होना चाहिए यदि इसी श्रेणी के कुछ प्रांतीय और राष्ट्रीय पदाधिकारियों से भी आपका पाला पड़ जाए.
ट्रेनिंग के व्यवस्था अत्यन्त ही आवश्यक है. ट्रेनिंग की जरूरत तीनो स्तर पर ही है.
बिनोद लोहिया
भाई विनोद ने ठीक लिखा की दूसरी और तीसरी पंक्ति के नेतृत्व का उपयोग नही के बराबर हो रहा है. रायपुर अधिवेशन का मुझे मालूम नही, लेकिन उसके पहले हर अधिवेशन में सभी सत्रों के संचालन आदि में पूर्व नेतृत्व और वर्त्तमान नेतृत्व का पुरा involvement रखा जाता था. लेकिन इस बार ये सब युवा साथी रांची में निठल्ले घूम रहे थे, वो बड़ी ही पीडादायक स्तिथि थी. अपने ही घर में जैसे की बेगाने हो गए थे.
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