बंधुओ,
ब्लाग से काफी दिन अनुपस्थित रहने के लिए क्षमा चाहूँगा। आज की पोस्टिंग में पाँच ख़ास बातें देखने को मिली।
एक, प्रमोद कुमार जैन की विचारोत्तेजक टिप्पणी, ओंकार पारीक जी के लेख पर। टिप्पणी पर कुछ कहने के पहले यह कहना चाहूँगा कि यहां ओंकार पारीक जी के साथ न्याय नहीं हुआ। उनके मूल लेख या उसके सारांश को दिए बिना उस पर टिप्पणी करने से पाठकों को यह पता नहीं चल पाएगा कि उनके मूल विचार क्या थे। लगता है ब्लाग के एडमिनिस्ट्रेटर महोदय ओंकार पारीक जी से खफा हैं। मजा तब आता जब ओंकार जी के विचारों को भी जगह दी जाती। या फिर उस पर टिप्पणी की जरूरत ही नहीं थी।
दो, प्रमोद कुमार जैन के विचार पढ़कर लगा कि उन्हें विचारों के पोल्यूशन से काफी भय लगता है। इसलिए ओंकार जी का लेख पढ़कर उन्हें क्षोभ हुआ। क्षुब्ध होने का कारण मुझे नजर नहीं आता। आप असहमत होते तो ज्यादा अच्छा लगता। मंच दर्शन मंच की गीता होगी, लेकिन हम जिस हिंदू समाज से आते हैं वहां एक ही धर्मग्रंथ के कई-कई भाष्य और टीकाएं होना आम बात है। हां, मंच दर्शन यदि मंच का कुरान है तब कोई बात नहीं, क्योंकि कुरान में एक भी शब्द के परिवर्तन की बात पर बवाल मच सकता है।
तीन, ऐसे पोल्यूशन से डरने वालों की मंच में कभी भी कमी नहीं रही है। अखबारों में कोई विचार आते ही वरिष्ठों से यह अनुरोध करते अक्सर सुना करता था - 'भाईजी, इनै बंद कराओ'। क्या बिगड़ा मंच का? और जो मंच के राष्ट्रीय नेताओं के चरित्र हनन से भी नहीं चूके उन तथाकथित पत्रकारों के पास मंच के ही नेताओं, छुटभैया नेताओं को गुपचुप समझौते करते भी हमने देखा। उससे भी कुछ नहीं बिगड़ा मंच का। आपमें अंदरूनी ताकत है तो आपको क्षोभ होने का कोई कारण नहीं।
चार, बिहार के वर्मा जी ने लिखा है कि यह मेरी अंतिम पोस्ट है। ऐसे न रूठें वर्मा जी। यह हमारा दिल से अनुरोध है। आप जानते ही हैं हमारे समाज में लिखने वाले, अपनी बातों को पान दुकानों की गप-गोष्ठियों से आगे अभिव्यक्त करने वाले कितने सीमित लोग हैं। चुनाव कितने दिनों का है? दुनिया उसके बाद भी रहेगी। मंच उसके बाद भी रहेगा। समाज उसके बाद भी रहेगा। इसलिए आप चुनाव को नजरंदाज कर दें। 'दुख और भी तो हैं एक तुम्हारी सूरत के सिवा।' इस ब्लाग को एक चुनौती के रूप में शुरू किया गया है। कृपया मेरी मानिए, इससे मुंह न मोड़िए। समाज को आपसे बहुत सी उम्मीदें हैं।
पांच, प्रमोद सराफ जी ने कल, आज और कल में बदलते समाज की रूपरेखा बनाने की कोशिश की है। सबसे बड़ा परिवर्तन स्त्री शिक्षा के रूप में आया है। सड़कों पर सभी समुदायों की लड़कियों को सीना ताने सर ऊपर उठाए (पहले कालेज जाती लड़कियां इतनी बेफिक्री से चारों ओर नहीं देखती थीं, उनकी नजर हमेशा अपनी साड़ी के पल्लू पर या कुर्ती की चुन्नी पर रहती थी) चलते देखते हैं तो खुशी होती है। आने वाले दिनों में हमारी भी कोई कोंडोलिजा राइस देश-विदेश में राष्ट्राध्यक्षों से बात करते, धमकाते नजर आएगी- इसे तय मानिए।
विनोद रिंगानिया
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1 comment:
सचमुच बहुत अच्छा
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