रांची अधिवेशन की उपलब्धि यदि पूछी जाए तो यही कही जाएगी वहां मंच संवाद को दोतरफा बनाने के लिए संकल्पित एक टीम तैयार हो गई। यह टीम पूरी तरह सक्षम है मंच की वेबसाइट को नया रूप में देने में। साथ ही ब्लाग के माध्यम से दोतरफा संवाद कायम करने में भी इस टीम से मदद मिलेगी।
रांची अधिवेशन में जिस चीज को खोजा वह अंततः नहीं मिली। मारवाड़ी बौद्धिकता की दिशा में क्या पहले की अपेक्षा कुछ कदम आगे बढे हैं - यदि यह सवाल पूछा जाए तो जवाब एक निराशाजनक नहीं ही मिलेगा।
लगने को वहां मारवाड़ी साहित्य के कई स्टाल लगे थे। उन्हें देखकर उम्मीद जगी थी। क्योंकि पहले साहित्य के स्टाल जैसी चीज देखने को नहीं मिला करती थी। लेकिन इनमें जो कुछ उपलब्ध था उसे साहित्य कतई नहीं कहा जा सकता। प्रमोद शाह जी के जमाने में निकली कुछ मंचिकाएं तथा कोलकाता शाखा की स्मारिकाओं को छोड़ दें तो चारों ओर सूखा था।
मारवाड़ी संवाद नाम की एक मासिक पत्रिका देखकर सुखद आश्चर्य हुआ। धनबाद के युवा अनूप अनुपम इसे छह सालों से निकाल रहे हैं। छपाई भी बड़ी सुंदर है। लेकिन मैटर के नाम पर शून्य ही कहा जाएगा। वही मारवाड़ी समाज के द्वारा किए जाने वाले जनसेवा के कामों का बखान है।
एक मजेदार वाकया.
समाज विकास का संपादन मित्र शंभु चौधरी जी करने लगे हैं। लेकिन इसमें भी किसी विचारोत्तेजक लेख की कमी खलने वाली थी।
ताजा मंचिका का भी यही हाल था। मुझे अपनी प्रति ढोकर गुवाहाटी लाने का औचित्य भी समझ में नहीं आया। आखिर वहीं छोड़ दी।
एक मजेदार वाकया।
एक मित्र घूम-घूम कर अपनी शाखा की सुंदर छपी स्मारिका बांट रहे थे। मैंने ले ली। अंदर के पृष्ठ पलटे और तुरंत ही उनसे कहा - यह तो मुझे मिल चुकी है। उतनी भारी-भरकम लेकिन बेकार स्मारिका को घर तक ढोने की मुझमें क्षमता नहीं थी - साथी माफ करेंगे।
यह सब लिखने का मकसद संपादकों की आलोचना करनी नहीं है। यह सब लिखने का मकसद यह बताना है कि मारवाड़ी समाज में अभी भी चिंतन की प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है। क्या यही कारण था कि अधिवेशन का कोई भी सत्र चिंतन और विचोरोत्तेजना की कसौटी पर खरा नहीं उतरा। (हालांकि इनमें कई-कई हाई प्रोफाइल वक्ताओं को आमंत्रित किया गया था, उन्हें लिवा आना कोई तमाशा नहीं है, इसके लिए कई पापड़ बेलने पड़ते हैं)
अधिवेशन हों या युवा मंच की छोटी बैठक या फिर इसकी पत्रिकाएँ चिंतन और संवाद के नाम पर अभी भी ये निराश करती हैं। रतन शाह जी ने अंतिम सत्र में थोड़ा विमर्श लाने की कोशिश की। वे काफी सालों से कोशिश कर रहे हैं। लेकिन दर्शकों ने उनका प्रत्युत्तर काफी ठंडी प्रतिक्रिया के रूप में दिया। ऐसा क्यों? मुझे लगता है रतन शाह जी को पहले छोटे सेमिनारों के जरिए ऐसे एक दर्जन लोग तैयार करने चाहिए जो राजस्थानी भाषा के उनके मिशन को समझे, उसे स्वीकार करे। राजस्थानी भाषा पर कई संदेह हैं, उनमें एक यह भी है कि इस भाषा को आगे बढ़ाने की जिम्मेवारी प्रवासी राजस्थानी लें या राजस्थानवासी।
जैसे हिंदी का सवाल आप लंदन या फिजी या त्रिनिदाद की जगह पहले उत्तर प्रदेश या बिहार में ही अच्छी तरह उठा सकते हैं। प्रवासी भारतीयों के लिए शायद यह प्राथमिक सवाल नहीं है। उसी तरह भाषा का सवाल उन प्रवासी राजस्थानियों के खून में कैसे उबाल लाएगा जो स्वयं तेजी से हिंदी को अपना रहे हैं।
जरूरी नहीं कि मेरी ही बात सही हो, लेकिन बात करने का एक वातावरण तो हो, कोई मंच तो हो जहां इन पर बहस हो। क्या ऐसा मंच नहीं है इसलिए बहस नहीं हो पाती, या बहस करने वाले नहीं है - इसलिए मंच नहीं है।
विनोद रिंगानिया
गुवाहाटी
bringania@yahoo.co.in
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