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मारवाड़ी युवा मंच का बाढ़ राहत अभियान - एक संस्मरण

हम बारह जने थे, चार-चार लोग तीन बोट पर सवार हुए साथ ही चार आर्मी के जवान भी बैठे हर एक बोट पर. रिलीफ मेटेरियल हमने लोड कर लिया था. साथ में ढेर सारी पानी की बोतलें और हाँ हर एक के लिए एक छाता भी. धुप तो चमड़ी जला रही थी इन दिनों. वाह री कुदरत तेरा भी गजब खेल है नीचे तो चारो तरफ़ पानी ही पानी और ऊपर से आग बरस रही है. मोटर बोट स्टार्ट हुई और हम बढ़ चले अपनी मंजिल की ओर - छातापुर ब्लाक. त्रिवेणीगंज (जिला- सुपौल) से १० कि.मी. दूर एक घाट से रवाना हुए है और दो-ढाई घंटे लगेंगे छातापुर पहुचने में. आधे घंटे बाद ही वो नजारा शुरू हो गया जिसे देखने और कवर करने भाई सर्वेश शर्मा आए थे - सीकर (राजस्थान) से. श्री सर्वेश शर्मा, दैनिक भास्कर के उप-सम्पादक हैं.उनका कैमरा कवर करने लगा - टापू में बदल चुकी बस्तियों को, अपने खेतों में तैर रहे किसानो और उनके परिवार वालो को.
अचानक एक झटका लगा, बोट रुक गयी, ये क्या हुआ? दरअसल खेतो की मेड में मोटर का फैन फंस गया था. आर्मी वालों ने पास आ चुके ग्रामीणों से कहा - धक्का लगाओ - २ तो पैकेट दूंगा. आखिर बोट वहां से निकली, कुछ पैकेट उन किसानो को मिले, फ़िर शुरू हुआ आगे का सफर. हरिहरपट्टी पंचायत पहुँचते-२ डेढ़ घंटे लग गए.
बोट कि आवाज सुनकर ही इकठ्ठा हो चुके ग्रामीण हमारा इन्तेजार कर रहे थे. हर एक को एक-२ पैकेट दिया जा रहा था. लोग ज्यादा थे पैकेट कम इसलिए प्राथमिकता महिलाओ को दी जा रही थी.
लगभग सभी को पैकेट दिए गए. कुछ पैकेट हमने रिजर्व में रखे ताकि लौटते समय कोई अत्यन्त जरूरतमंद मिले तो उसे दे.

और एक जगह एक पूरा समूह मिला भी ऐसा - महिलाएं ही ज्यादा थी, पुरूष तो किनारे तक चले गए. महिलाएं बच्चो, वृद्धो और जानवरों के साथ गाँवों में ही थीं. आँचल फैलाकर, कमर तक पानी में डूबी इन महिलाओ को रिलीफ पैकेट देकर मन में संतुष्टि तो शायद ना ही होती - पीड़ा अधिक थी. लेकिन कई दिनों से इस मंजर के आदी होने के बाद अब प्रकृति की क्रूरता ने हमारे दिलों को भी कठोर बना दिया था. बोट पर सारे पैकेट ख़त्म हो चुके थे, लेकिन एक बूढी महिला गिडगिडा रही थी, उसके हिस्से कुछ भी नही आया था. ब्रजराजनगर (उडीसा) से आए भाई रमेश जी ने यह देख अपना पर्स निकाला लेकिन अफ़सोस करते हुए वापस अपनी जेब में रख लिया. सच है अगर पैसे दे भी तो खरीदने के लिए भोजन है कहाँ कोसी के इस महासमुद्र में.
रिलीफ पैकेट ख़त्म होने से बोट में जगह बन गयी थी अतः हमने कुछ ग्रामीणों को बोट पर चढ़ा लिया, किनारे पहुंचाने के लिए. उनमे से एक शिकायत कर रहा था - सर आप लोग ज्यादातर औरतों को ही पैकेट क्यो देते है? आनंद भइया ने कहा - औरत भूखे रहकर भी बच्चों को खिला देगी. लेकिन ग्रामीण असहमत था - नही सर, हमारे गाँव की औरतें बहुत दुष्ट है वो ख़ुद खायेंगी, हमें नही देंगी. बाकी ग्रामीणों की हंसी के ठहाकें उठे. लेकिन हमारे चेहरे भावशून्य सामने किनारे को देख रहे थे. अब राहत शिविर में लौटना है .

- अनिल वर्मा

1 comment:

MANCH said...

बहुत अच्छा लिखते हैं आप. आप से उम्मीद है कि और भी मुद्दों पर अपनी लेखनी चलायें.
अजातशत्रु

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